मुद्दा हो तो कैसा हो?
चारों ओर बहस हो रही है सबसे ज़्यादा बहस बुद्धिजीवी कर रहे हैं। सारे के सारे बड़ा जोर देकर कह रहे हैं – “किसी पार्टी के पास कोई मुद्दा नहीं है।”
हमारे देश के बहुत-से बुद्धिजीवियों की एक ख़ासियत है। उनकी `सहज बुद्धि’ ज़्यादा तेज़ होती है। वे यह मानकर चलते हैं कि जिनको वे असली मानते हैं, राजनीति भी उन्हीं मुद्दों को असली माने। अगर, बुद्धिजीवियों के मुद्दे ही राजनीति के मुद्दे होते, तो बुद्धिजीवी देश के नेता न होते! अगर, बुद्धिजीवी अपनी `बहस बुद्धि’ के बजाय `सहज बुद्धि’ का इस्तेमाल करें, तो वे देख सकते हैं कि सभी पार्टियों के पास मुद्दे हैं, अनेक मुद्दे हैं। पर सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि जो असली मुद्दे हैं, उनसे बचा कैसे जाये?
मुद्दों पर विचार करने के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी ने `मुद्दा कमेटी’ की मीटिंग बुलायी। मीटिंग में चुनाव के लिए मुद्दे तय किये जाने थे।
सबसे पहला सुझाव आया – ग़रीबी। कमेटी के एक वरिष्ठ सदस्य ने तुरंत खारिज कर दिया, यह मुद्दा बहुत पुराना है। बासी हो गया है। और, यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे हल नहीं किया जा सकता। जब साठ सालों में नहीं हुआ तो अगले पांच साल में कैसे हो जायेगा?” हिंदुस्तान का कोई नेता पांच साल से आगे नहीं देखता।
दूसरे वरिष्ठ नेता ने ग़रीबी को लोकतांत्रिक अधिकार बताया, `देखिये, ग़रीबी हटाने की सोचना बंद कर दीजिये मेरे ख़्याल से तो खुद गरीबी भी हटने के मूड में नहीं है। इंदिरा गांधी ने कितनी कोशिश की, हटी क्या? वैसे भी लोकतंत्र में सबको अपनी मर्जी से रहने का अधिकार है। अगर ग़रीबी, ग़रीबी ही बनी रहना चाहती है तो हमें उसकी इच्छा का मान रखना चाहिये।”
तीसरे सदस्य ने, ग़रीबी न हटा पाने का एक बड़ा ही व्यावहारिक कारण बताया, “अभी तो अपनी पार्टी में ही सबकी ग़रीबी दूर नहीं हुई है। जो मंत्री बन गये, वे तो बन गये। बाकी लोग अभी बाकी हैं। उन्हें मौका नहीं मिला तो वे बाग़ी बन जायेंगे। ग़रीबी दूर करने को मुद्दा बनाया तो वे अड़ जायेंगे कि पहले हमारी दूर करो। इसलिए ग़रीबी के छत्ते में हाथ न डालना ही बेहतर है।”
एक सदस्य ने भ्रष्टाचार का मुद्दा उछाला। लेकिन, इस मुद्दे पर बहस करने को कोई तैयार नहीं था। कारण, पार्टी सरकार बनाना चाहती है। अगर, भ्रष्टाचार को खत्म कर देंगे तो सरकार बना कर क्या करेंगे? भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना ही हुआ, तो चुनाव के बाद बनायेंगे। सरकार नहीं बना पाये तो!
अगर, बुद्धिजीवी अपनी `बहस बुद्धि’ के बजाय `सहज बुद्धि’ का इस्तेमाल करें, तो वे देख सकते हैं कि सभी पार्टियों के पास मुद्दे हैं, अनेक मुद्दे हैं। पर सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि जो असली मुद्दे हैं, उनसे बचा कैसे जाये?
एक सदस्य ने भ्रष्टाचार का मुद्दा उछाला। लेकिन, इस मुद्दे पर बहस करने को कोई तैयार नहीं था। कारण, पार्टी सरकार बनाना चाहती है। अगर, भ्रष्टाचार को खत्म कर देंगे तो सरकार बना कर क्या करेंगे? भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना ही हुआ, तो चुनाव के बाद बनायेंगे। सरकार नहीं बना पाये तो!
किसी जूनियर ने बेरोज़गारी का मुद्दा सुझाया तो एक सीनियर नेता भड़क गये, “ये क्या ग़रीबी-बेरोज़गारी का राग अलाप रहे हो? राजनीति में कभी तो अक्ल का इस्तेमाल किया करो – कह दिया बेरोज़गारी दूर करो!! अरे, अमरीका तो दूर कर नहीं पा रहा और तुम यहां की बात कर रहे हो!”
इतिहास में कुछ क्षण ऐसे होते हैं, जब सबको एक साथ अंतर्ज्ञान मिल जाता है। यह चुनाव भी ऐसा ही एक क्षण है। सभी पार्टियों को इल्हाम हो गया है। सबको मुद्दा मिल गया है। कोई अपने किसी विरोधी को गाली दे रहा है तो कोई किसी समाज को। कोई जात के नाम पर गाली दे रहा है, तो कोई धर्म के नाम पर। नेता गाली दे रहे हैं। बुद्धिजीवी गालियों पर बहस कर रहे हैं। खबरिया चैनल गालियां परोस रहे हैं। देश गालीमय हो गया है। सबका काम कितना आसान हो गया है। किसी को जनता के मुद्दों में अपना दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं है।
जय हो!!
यज्ञ…
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